प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2015 को लाल किले से एक बड़ी घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि बाबा साहेब की यह सवा सौवीं जयंती है और इस मौके पर देश के सवा लाख बैंक शाखाओं को यह जिम्मा सौंपा जाता है कि हर शाखा अनुसूचित जाति या जनजाति के कम से कम एक उद्यमी और इसके अलावा एक महिला उद्यमी को दस लाख से एक करोड़ रुपये का कर्ज दे, ताकि वह अपना रोजगार शुरू कर सके। वित्तीय समायोजन और सबके विकास की यह एक बेहतरीन स्कीम है।

इस स्कीम को प्रधानमंत्री मोदी ने ‘स्टैंड अप इंडिया’ नाम दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह एक साथ देश में सवा लाख दलित और आदिवासी उद्यमी खड़े हो जाएंगे। पर जिस नौकरशाही और बैंकिंग सेक्टर को यह काम करना था, उसने इतनी अच्छी योजना को बेहद बुरे तरीके से लागू किया।

वित्त मंत्रालय ने संसद को जानकारी दी कि 31 दिसंबर, 2017 तक इस योजना के तहत सिर्फ 6,589 दलितों और 1,988 आदिवासी उद्यमियों को ही कर्ज दिया गया है।

इस समय देश में 1.39 लाख बैंक शाखाएं हैं। इसका मतलब है कि 8,577 बैंक शाखाओं ने स्टैंड अप इंडिया स्कीम पर अमल किया और एक लाख तीस हजार से ज्यादा बैंक शाखाओं ने या तो इस योजना के तहत कर्ज नहीं दिया, या फिर किसी ने उनसे कर्ज मांगा ही नहीं। इस तरह एक साथ सवा लाख दलित और आदिवासी उद्यमी खड़े करने के सपनों की दुर्गति हो गई।

सबसे पहले तो इस योजना को शुरू करने में ही देरी हुई। जिस योजना की घोषणा प्रधानमंत्री 15 अगस्त, 2015 को इतनी धूमधाम से देश के सामने करते हैं, उसे आठ महीने बाद अप्रैल 2016 में शुरू किया जाता है। बैंकों के पास इसे पूरा करने की कोई समय सीमा नहीं है कि इतने समय में लक्ष्य हासिल करना है। इस योजना पर अमल न करने वाले बैंकों के लिए किसी दंड का प्रावधान नहीं है। यहां तक कि इस योजना की वेबसाइट पर इस बात की भी जानकारी नहीं है कि किन बैंकों ने सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना पर काम नहीं किया या ढिलाई बरती।

स्टैंड अप इंडिया पर अमल के आंकड़ों से अंदाजा लगा सकते हैं कि भारतीय समाज में दलितों और आदिवासियों के वित्तीय समावेशन का काम कितना मुश्किल है। और यह भी सरकार की मंशा होना ही इस काम के लिए काफी नहीं है। स्टैंड अप इंडिया के आंकड़ों के बाद जरूरत इस बात की है कि बैंकों की तमाम और स्कीम की भी सोशल ऑडिटिंग की जाए और हर ब्रांच के आंकड़े सार्वजनिक किए जाएं कि दलितों और आदिवासियों के लिए उन्होंने क्या किया।

बैंकिंग सेक्टर निश्चित रूप से एक व्यावसायिक उपक्रम है और जाहिर है कि पैसा कमाना उसका लक्ष्य है। लेकिन किसी भी देश में बैंकिंग सेक्टर का यह एकमात्र काम नहीं हो सकता। बैंकिंग सेक्टर से उम्मीद की जाती है कि वह समाज के किसी हिस्से को खारिज करके न बढ़े। हालांकि बैंक इस बात का आंकड़ा नहीं रखते, लेकिन देश में दलित और आदिवासियों के विशाल मध्यवर्ग को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि दलित और आदिवासी अपना अरबों रुपया बैंकों में जमा करते हैं।

जाहिर है कि जो समुदाय जमा कर रहा है, उसे कर्ज देते समय भी हिस्सेदार बनाया जाना चाहिए। इसके अलावा भारत में प्रायोरिटी सेक्टर बैंकिंग की भी अवधारणा है, जिसके तहत इन समुदायों तक बैंकिंग का फायदा पहुंचना चाहिए, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। इससे पहले सच्चर कमेटी रिपोर्ट में यह पाया गया कि बैंक मुसलमानों को जमा के मुकाबले कर्ज नहीं देते। अगर ऐसी ही जानकारी दलितों और आदिवासियों के बारे में जुटाई जाए, तो लगभग मिलते-जुलते या उससे भी बुरे आंकड़े मिल सकते हैं।

इस समस्या का एक समाधान यह है कि सरकार को वित्तीय समायोजन की किसी भी नई योजना की शुरुआत करने से पहले बैंकों से इस बात के आंकड़े जुटाने चाहिए कि बैंकों से दिए जाने वाले कर्ज में दलितों और आदिवासियों का हिस्सा कितना है। इस आधार पर अच्छे और बुरे बैंकों की पहचान होनी चाहिए। अच्छे बैंकों को प्रोत्साहित करना चाहिए और बुरे बैंकों को दंडित करना चाहिए।

स्टैंड अप इंडिया के तहत दलितों और आदिवासियों को कर्ज न मिलने की दो वजहें हो सकती हैं और दोनों ही वजहें बेहद चिंताजनक हैं। एक वजह तो यह हो सकती है कि बैंकों ने कर्ज के लिए आए आवेदनों को सही नहीं पाया या किसी और वजह से उन आवेदनों को खारिज कर दिया। अगर ऐसा है, तो बैंकों ने अपने उस कर्तव्य को पूरा नहीं किया, जो उनके लिए प्रधानमंत्री ने निर्धारित किया था।

वित्त मंत्रालय को इस बात की जांच करनी चाहिए कि आखिर बैंकों ने ऐसा किया, तो क्यों किया? इतनी महत्वाकांक्षी और अच्छी नीयत से शुरू की गई योजना को बैंक अफसरों की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता। कर्ज मांगने वाले व्यक्ति के साथ बैंक अधिकारियों की बातचीत की वीडियो रिकॉर्डिंग भी एक तरीका है, जिससे अफसरों की मनमानी रुक सकती है। और बैंकों से पूछा जाना चाहिए कि स्कीम लागू करने में उन्हें कहां से बाधा आ रही है।

स्टैंड अप इंडिया के तहत दलितों और आदिवासियों को कर्ज न मिलने की दूसरी वजह यह हो सकती है कि अभी दलित और आदिवासी समुदाय में वह तबका पैदा ही नहीं हुआ है, जो दस लाख से एक करोड़ रुपये तक का बैंक कर्ज लेकर अपना काम शुरू कर सके। अगर ऐसा है, तो आजादी के 70 साल के विकास के मॉडल पर यह बहुत बड़ा सवालिया निशान है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, दलितों और आदिवासियों की सम्मिलित संख्या 30 करोड़ से अधिक है।

यानी देश का हर चौथा आदमी दलित या आदिवासी है। इतनी बड़ी आबादी क्या सवा लाख ऐसे लोग पैदा नहीं कर पा रही है, जो 10 लाख रुपये से ज्यादा का कर्ज ले सकें, तो इसका मतलब है कि भारत में वित्तीय समायोजन का काम लगभग पूरी तरह से अधूरा पड़ा है।

(वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की फेसबुक वॉल से साभार)

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