भारत में मीडिया की आज़ादी को लेकर अक्सर सरकार को दोषी ठहराया जाता है। कभी पत्रकारों को सवाल करने के लिए जेल में डाल दिया जाता है, तो कभी मीडिया कंपनियों पर छापा पड़वाया जाता है। ठीक इसी तरह ऑस्ट्रेलिया में भी मीडिया की आज़ादी एक ‘मिथ’ बन चुका है। फर्क बस इतना है कि ऑस्ट्रेलिया की मीडिया अपनी आज़ादी के लिए खुद आवाज़ उठा रहा है।

दरअसल, ऑस्ट्रेलिया के सभी बड़े डेली अख़बारों ने अपने पहले पन्ने को सेंसरशिप के विरोध में काला कर दिया है। उनका आरोप है कि सरकार अपने फ़ैसलों से लगातार मीडिया की आज़ादी पर हमला कर रही है।

Whistle blower, यानी कि किसी गैरकानूनी काम को सबके सामने लाने वाले लोगों पर भी सरकार कार्यवाही कर रही है।

सोशल मीडिया पर जिम रॉबर्ट्स ने लिखा, ऑस्ट्रेलिया के सभी बड़े अखबार प्रेस प्रतिबंधों और “गोपनीयता की संस्कृति” के विरोध में पहले पन्ने को काला प्रकाशित कर रहे हैं।”

ऑस्ट्रेलिया में ‘द क्रॉनिकल’ और ‘द ऑब्ज़र्वर’ जैसे बड़े अखबार सरकार की तानाशाही के विरोध में एक-जुट खड़े हो गए हैं। लेकिन भारत के अखबारों की हालत ठीक उलट है।

यहाँ अख़बार सरकार से सवाल करने के बजाय सरकार का पी.आर. करते हैं। इसपर प्रतिक्रिया देते हुए सोशल मीडिया पर लक्ष्मण यादव लिखते हैं,दो मुल्कों के अख़बार हैं ये। पहली तस्वीर में ऑस्ट्रेलिया के अख़बार हैं, जिन्होंने अपने यहां की सत्ता के प्रतिरोध में ब्लैक आउट किया है। दूसरी तस्वीर में आर्यावर्ते, जम्बूद्वीपे, भारतखंडे के अख़बारों का आलम है।
बाकी कहानी आप समझें।”

इस तस्वीर में देखा जा सकता है कि जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, द हिन्दू और दैनिक भास्कर जैसे बड़े-बड़े अख़बारों में एक साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तस्वीर वाला विज्ञापन छपा है। जो मीडिया पहले पेज पर इस तरह का विज्ञापन छाप रहा है, वो आखिर सरकार से कैसे सवाल करेगा?

एक अन्य अखबार दैनिक जागरण ने तो ‘आतंकियों पर प्रहार’ को प्रमुख हेडिंग बनाया और ठीक नीचे दे दिया विज्ञापन – ‘भाजपा को वोट दें।’

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, क्योंकि उसका काम होता है बाकी तीन स्तंभ पर नज़र रखना और उनसे सवाल करना। लेकिन भारत का मीडिया सवाल करने के बजाए सरकार का प्रचार करने में ज़्यादा मगन है।

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