राफेल मामले में लगातार सामने आ रहे नए खुलासे सरकार के हर दावे और बचाव को बेईमान बता रहे हैं। इस मामले में फ़्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के बयान को मोदी सरकार ने गलत बताया था लेकिन हाल ही में सामने आए नए खुलासे ने फ्रांस्वा ओलांद के बयान को सही साबित किया है।

पता चला है कि फ़्रांस की कंपनी के साथ रिलायंस ने हाथ मिलाकर जो कंपनी बनाई है वो समझौते के 14 दिन बाद रजिस्टर हुई है।

फ्रांस्वा ओलांद ने हाल हे में फ़्रांस के समाचार संगठन ‘मीडियापार्ट’ से बातचीत के दौरान कहा था कि भारत सरकार ने फ़्रांस की कंपनी डसौल्ट को अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेन्स लिमिटेड (आरडीएल) के अलावा किसी अन्य कंपनी को साझेदार बनाने का प्रस्ताव ही नहीं दिया था। फ्रांस्वा ओलांद इस डील के दौरान फ़्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति थे।

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इसके बाद मोदी सरकार ने उनके इस बयान को गलत बताया और कहा कि डसौल्ट ने खुद आरडीएल को अपने साझेदार के रूप में चुना था। लेकिन अब पता चला है कि डसौल्ट और आरडीएल के साथ मिलकर राफेल विमान के पुर्जें बनाने के लिए जो कंपनी बनी है वो इस समझौते के 14 दिन बाद रजिस्टर हुई है।

कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, राफेल विमान के पुर्जें बनाने के लिए रिलायंस और डसौल्ट ने हाथ मिलाकर ‘डेसॉल्ट एविएशन एंड रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड’ नाम से जो कंपनी बनाई है वो 24 अप्रैल 2015 को रजिस्टर हुई है जबकि इस समझौते की घोषणा 10 अप्रैल 2015 को हुई थी।

तो अब सवाल ये है कि अगर डसौल्ट ने रिलायंस को पहले ही चुन लिया था तो उसने समझौते के 14 दिन बाद उसके साथ कंपनी को रजिस्टर क्यों किया? अगर पहले चुन लिया गया था तो दोनों के द्वारा बनाई गई कंपनी पहले ही रजिस्टर हो जानी चाहिए थी।

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इस नई जानकारी के सामने आने के बाद मोदी सरकार पर लगा विपक्ष का ये आरोप मजबूत होता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने फ़्रांस यात्रा के दौरान एक दिन में इस डील को बदला और हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचआईएल) की जगह अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेन्स लिमिटेड का नाम समझौते में शामिल किया इसीलिए डसौल्ट ने रिलायंस के साथ कंपनी समझौते के बाद बनाई।

क्या है विवाद

राफेल एक लड़ाकू विमान है। इस विमान को भारत फ्रांस से खरीद रहा है। कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि मोदी सरकार ने विमान महंगी कीमत पर खरीदा है जबकि सरकार का कहना है कि यही सही कीमत है। ये भी आरोप लगाया जा रहा है कि इस डील में सरकार ने उद्योगपति अनिल अंबानी को फायदा पहुँचाया है।

बता दें, कि इस डील की शुरुआत यूपीए शासनकाल में हुई थी। कांग्रेस का कहना है कि यूपीए सरकार में 12 दिसंबर, 2012 को 126 राफेल विमानों को 10.2 अरब अमेरिकी डॉलर (तब के 54 हज़ार करोड़ रुपये) में खरीदने का फैसला लिया गया था। इस डील में एक विमान की कीमत 526 करोड़ थी।

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इनमें से 18 विमान तैयार स्थिति में मिलने थे और 108 को भारत की सरकारी कंपनी, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल), फ्रांस की कंपनी ‘डसौल्ट’ के साथ मिलकर बनाती। अप्रैल 2015, में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी फ़्रांस यात्रा के दौरान इस डील को रद्द कर इसी जहाज़ को खरीदने के लिए में नई डील की।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, नई डील में एक विमान की कीमत लगभग 1670 करोड़ रुपये होगी और केवल 36 विमान ही खरीदें जाएंगें। क्योंकि 60 हज़ार करोड़ में 36 राफेल विमान खरीदे जा रहे हैं। नई डील में अब जहाज़ एचएएल की जगह उद्योगपति अनिल अंबानी की कंपनी ‘रिलायंस डिफेंस लिमिटेड’ डसौल्ट के साथ मिलकर बनाएगी।

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जबकि अनिल अम्बानी की कंपनी को विमान बनाने का कोई अनुभव नहीं है क्योंकि ये कंपनी राफेल समझौते के मात्र 12 दिन पहले बनी है। साथ ही टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर भी नहीं होगा जबकि पिछली डील में टेक्नोलॉजी भी ट्रान्सफर की जा रही थी।

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