गांधी की 150वीं जयंती को मोदी सरकार ने भरपूर हिंसा के साथ मनाया। देश भर से आए किसानों को दिल्ली के बार्डर पर रोक दिया गया। विभाजनकारी राजनीति का चरस चाट चुकी मोदी सरकार ने किसानों को उनके ही बेटों (पुलिस वालों) के सामने खड़ा कर दिया। फिर क्या था, जमकर हिंसा हुई।

चाय वाले की सरकार में ‘किसानों’ को रोका जा रहा है और देश के ‘लुटेरों’ को विदेश भेजा जा रहा है

पुलिस वालों ने अपने ही अन्नदाताओं पर जमकर आंसू गैस के गोले छोड़े, खूब वाटर कैनन चलाए। लहूलुहान किसान सड़क पर भागते रहे, गोलियां चलती रही। अब सोशल मीडिया किसानों के खून में सना नजर आ रहा है। किसा का सिर फटा है, किसी का पैर टूटा है, किसा का हाथ टूटा है और कोई खून की उल्टी कर रहा है।

किसानों के प्रदर्शन में ज्यादातर बूढ़े और अधेड़ उम्र की महिलाएं और पुरुष होते हैं। वे कोई हुड़दंगी भीड़ नहीं होते। फिर उनके साथ हिंसा क्यों की गई? क्या गलती थी इन निहत्थे बुजुर्ग किसानों की?

अपने फसल का उचित मुल्य मांगना? उधोगपतियों का कर्ज माफ करने वाली सरकार से कर्ज माफी की गुहार लगाना, किसान विरोधी नीतियों में बदलाव की मांग करना या महात्मा गांधी की समाधि तक जाने की जिद करना? क्या दिल्ली किसानों के लिए नहीं है? क्या दिल्ली को इन निहत्थे बुजुर्ग किसानों से खतरा था?

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