श्याम मीरा सिंह

बलिया के डीएम ने माफी मांग ली है. अच्छी बात है. लेकिन हम डीएम की बात नहीं करेंगे. फिलहाल बात करेंगे मीडिया की कि किस तरह अपरकास्ट माइंडसेट वाली मीडिया इंडस्ट्री ने इस मामले पर अपनी कवरेज की.

तीन चार दिन पहले बलिया से एक खबर आ रही थी कि वहां मिड डे मिल के दौरान वंचित समाज के बच्चों के साथ छुआछूत होता है. उनके साथ भेदभाव किया जाता है. इसकी खबर जब दलित समाज के स्थानीय नेताओं को लगी. तो उन्होंने मामले की शिकयत डीएम से की. ये कहते हुए कि कृपया मामले की जांच करें, न्याय करें. लेकिन डीएम साहब जब स्कूल पहुंचे तो स्कूल में घुसने से पहले ही. उन्होंने दलित समाज के प्रतिनिधियों पर ही पर्सनल कमेंट करना शुरू कर दिया.

इसकी एक वीडियो वायरल हुई जिसमें डीएम साहब, बसपा नेताओं से कह रहे हैं- 25 लाख की गाड़ी से आए हैं सफेदपोश, राजनीति करने के लिए. आपके पहने हुए जूतों की कीमत क्या है? पहनी हुई घड़ी की कीमत क्या है? ये कहते हुए डीएम ने एक नेता का हाथ भी पकड़ लिया था.

वीडियो में साफ दिखाई दे रहा है. दलित समुदाय के प्रतिनिधि कितनी तमीज के साथ न्याय की रिक्वेस्ट कर रहे हैं. लेकिन डीएम अपने अलग ही दम्भ में थे. खुद अपरकास्ट थे शायद इसलिए उन्हें अहसास नहीं था कि छुआछूत होती क्या है. कैसे छुआछूत की एक छोटी सी घटना भी आत्मा की खाल पर जिंदगी भर का जख्म दे जाती है. डीएम की इस अभद्रता का सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने डीएम की खिंचाई करना शुरू कर दिया. नतीजा ये आया है कि फिलहाल डीएम डीएम ने माफी मांग ली है, ये भी लिखा है कि ये उसका बचपना था. ऐसे शिकायतकर्ता से उसके कपड़ों की, पहनावे की कीमत नहीं पूछनी चाहिए थी.

लेकिन वो सब टीवी वाले, अखबार वाले कब माफी मांगेंगे जो बलिया के डीएम की उस घिनोनी करतूत का गुणगान कर रहे थे. चूंकि मामला दलित समुदाय का था. इसलिए मीडिया और डीएम साहब दोनों के लिए ये पचाना मुश्किल था कि ये लोग कैसे बोल सकते हैं! ये लोग कैसे राजनीति कर सकते हैं. ये नेता कैसे बन सकते हैं. इनमें शिकायत करने का दुस्साहस कैसे आया.

इसलिए डीएम की अभद्रता को भी इन्होंने वीरगान बनाकर वेबसाइटों पर छापा. बड़े-बड़े न्यूजचैनल, बड़े-बड़े अखबारों की वेबसाइटों ने चमकदार हेडलाइंस लिखीं. किसी ने लिखा कि डीएम ने बसपा नेताओं को आइना दिखाया, किसी ने लिखा कि राजनीति करने गए नेताओं को खरी-खरी सुना दी.

खबर वही है, घटना वही है, डीएम माफी मांग रहे हैं, ये भी कह रहे हैं कि ये उनका बचपना था. लेकिन वो टीवी चैनल, वेबसाइटों के पत्रकार कब माफी मांगेंगे? जो डीएम की इस अभद्रता पर कविता पढ़ रहे थे?

मुझे मालूम है उनमें से कोई भी माफी नहीं मांगने वाला. माफी अनजान आदमी मांगता है. सच्चा आदमी मांगता है. जाहिल और साजिशकर्ता नहीं. वैसे भी ये कोई पहली बार नहीं है जब दलितों से सम्बंधित मुद्दे पर मीडिया ने झूठ फैलाया हो, भ्रम फैलाया हो. हर बार यही होता है. ये होता भी रहेगा. इसके पीछे कोई बड़ा गणित नहीं है. मीडिया के 90 प्रतिशत हिस्से पर कथित ऊंची जाति का कब्जा है. सभी मालिक अपर कास्ट हैं, एडिटर, सब एडिटर, न्यूज एंकर, प्रोड्यूसर, असिस्टेंट प्रोड्यूसर सब एक-दो ही कास्ट के हैं. यहां दलितों को नौकरी नहीं दी जाती. पचास लोगों की ऑफिस में पांच लोग भी इस कम्युनिटी के नहीं मिलते. उन पचास लोगों में 40 से 45 लोग केवल अपरकास्ट के ही होंगे. अगर आपको लगता है कि नहीं, तो गिनकर देख लीजिए अपनी ऑफिसों में.

इसलिए कहता हूं आरक्षण ‘गरीबी हटाओ स्कीम” नहीं है. ये प्रतिनिधित्व का मसला है.

मीडिया में आरक्षण नहीं है, प्राइवेट नौकरियों में नहीं है. तो यहां आपको दलित ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे! इतनी बड़ी आबादी है. लेकिन इनके समुदाय के आदमी सीईओ, मैनेजर, असिस्टेन्ट मैनेजर कहीं नहीं मिलेंगे. प्राइवेट का यही खेल है. मालिक ऊंची जाति का, चाय देते हुए, बनाते हुए, कप साफ करने वाला वंचित समाज से.

जब तक कप साफ करने वाले,उसी कंपनी में अपना हिस्सा नहीं मांगेंगे, इस समुदाय के बच्चे मीडिया में नहीं पहुंचेंगे ऐसी ही मिसलीडिंग खबरें आएंगी. ऐसे ही भ्रम बेचा जाएगा. अगली बार जब कोई कहे “कि आरक्षण को खत्म कर देना चाहिए, आरक्षण पर विचार किया जाना चाहिए. आर्थिक आधार पर कर दिया जाए. तब इस घटना को सुना देना कि प्रतिनिधित्व नहीं था तो बलिया की घटना पर अपर कास्ट के पत्रकार लोग क्या लिख रहे थे. इसलिए प्रतिनिधित्व का होना बेहद जरूरी है. हर स्तर पर, हर काल, हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व की जरूरत है.

(ये लेख श्याम मेरा सिंह के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)

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