पिछले कुछ दिनों से एक नया नाटक शुरु हुआ है। बीजेपी ‘नमो एप’ के जरिए 5 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक का डोनेशन मांग रही है।
खुद प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया ‘मैंने ‘नमो ऐप’ के माध्यम से 1000 रुपए की राशि दी है। मैं आपसे आग्रह करता हूं कि आप सभी इस ऐप के माध्यम से पार्टी में योगदान दें और सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता का संदेश फैलाएं।’
Contributed to @BJP4India, via the ‘Narendra Modi Mobile App.’
I urge you all to contribute to the Party through the App and spread the message of transparency in public life. pic.twitter.com/5NwwDzC2BA
— Narendra Modi (@narendramodi) October 23, 2018
बीजेपी ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से अपील की है ‘आपका छोटा योगदान ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के निर्माण में बड़ा अंतर ला सकता है। इसलिये नमो ऐप के माध्यम से 5 रुपये, 50 रुपये, 100 रुपये, 500 रुपये और 1000 रुपये का छोटा छोटा योगदान करें और भाजपा को मजबूत बनाएं।’
Your small donation can make a big difference in making 'Ek Bharat Shreshtha Bharat'. Contribute and strengthen BJP with micro-donations on the NaMo App. Download App at https://t.co/f0ytXYhIVp. pic.twitter.com/mEAK8SmC1w
— BJP (@BJP4India) October 23, 2018
इस अपील की गंभीरता को दर्शाने के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सरीखे कई वरिष्ठ बीजेपी नेताओं ने ‘नमो एप’ के जरिए डोनेशन देकर ट्विटर पर स्क्रीनशॉट शेयर किया है।
तो क्या गरीब हो गई है बीजेपी?
क्या बीजेपी इतनी गरीब पार्टी है कि उसे 5-5 रुपए के डोनेशन की जरूरत है? जी नहीं, बीजेपी भारत की सबसे अमीर पार्टी है। एडीआर की 2016-17 की रिपोर्ट के मुताबिक बीजेपी की आय 1,034.27 करोड़ रुपये है। ये 2015-16 के मुकाबले 81.18 प्रतिशत ज्यादा है। 2015-16 में भाजपा की आय 570.86 करोड़ रुपये थी।
यानी बीजेपी की आय बहुत तेजी से बढ़ रही है। चुनाव नजदीक होने की वजह से आय बढ़ने की रफ्तरा और तेज हो सकती है। ऐसे में इतना तो क्लियर है कि बीजेपी को 5-5 रुपये वाले डोनेशन की जरूरत नहीं है।
और किसी को ये भी गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि बीजेपी राजनीति में सुचिता और पारदर्शिता लाने के लिए ऐसा कर रही है। क्योंकि बीजेपी पहले ही ऐसा कानून बना चुकी है कि जिससे राजनीतिक पार्टी को चंदा देने वाले का नाम किसी को पता ही न चले। इसे ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ कहते हैं। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ को काला धन का सबसे बड़ा डॉन कहा था।
फिर माजरा क्या है?
अब सवाल उठता है कि जब बीजेपी गरीब है नहीं, पारदर्शिता का गला पहले ही घोटा चुकी है, तो फिर ये डोनेशन वाली नौटंकी क्यों? और अचनाक से इस अभियान को आम चुनाव के कुछ महीने पहले क्यों शुरू किया गया है?
‘दि प्रिंट’ ने अपनी एक रिपोर्ट में इन सवालों पर विस्तृत चर्चा की है। दरअसल बीजेपी अपनी छवी गरीबों की राजनीतिक पार्टी के रूप में बनाना चाहती है। बीजेपी ने ऐसी कोशिश 2014 लोकसभा चुनाव में भी की थी। तब बीजेपी नरेंद्र मोदी के रैलियों की टिकट 5 रुपए में बेचती थी। जनता 5 रुपए का टिकट लेकर नरेंद्र मोदी का भाषण सुनती थी।
अगर कोई ‘नमो एप’ के जरिए 5 रुपये डोनेट कर रहा है। इसका मतलब वो सिर्फ 5 रुपए ही नहीं दे रहा बल्कि अपना भारोसा और विश्वास भी दे रहा है।
‘नमो एप’ को डाउनलोड करना, उसमे खुद को रजिस्टर करना, फिर डोनेशन की प्रक्रिया को पूरा करना। ये पूरा प्रोसेस टाइम टेकिंग हैं। और अगर कोई इतनी मेहनत करता है, मतलब डोनेशन देना वाला वोट तो पक्का देगा।
जाहिर है ‘नमो एप’ पर डोनेशन देने वाला पहले से ही बीजेपी समर्थक होगा। इसका मतलब बीजेपी अपने इस अभियान के माध्यम से नए वोटर नहीं बना रही बल्कि पूराने वोटरों को उर्जा देने की कोशिश कर रही है।
ध्यान देने देने वाली बात ये भी है कि इस 5-5 रुपए वाले डोनेशन लेने के लिए बीजेपी अपनी वेबसाईट का इस्तेमाल नहीं कर रही है, ‘नमो एप’ का इस्तेमाल कर रही है। यानी 2014 की तरह 2019 में भी बीजेपी नरेंद्र मोदी की ‘लहर’ चलाने की कोशिश में है।
2019 में भी बीजेपी पार्टी के नाम पर नहीं नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगने की तैयारी में है। ‘अबकी बार मोदी सरकार’ की तर्ज पर 2019 का कैंपेन भी नरेंद्र मोदी को ध्यान में रखकर तैयार किया जा रहा है।
अब सबसे बड़े फायदे की बात…
बीजेपी को इस अभियान के माध्यम से डोनेशन देने वालों का डाटा मिल जाएगा। और 21वीं सदी में डाटा डोनेशन की राशी से कई गुणा ज्यादा मुल्यवान है। ‘नमो एप’ में खुद को रजिस्टर करने के लिए बहुत सी जानकारी साझा करनी पड़ती है। अब आम चुनाव से पहले बीजेपी के पास ऐसे लोगों का डेटाबेस होगा जो पार्टी के लिए समर्पित हैं। इन लोगों का इस्तेमाल बीजेपी अपने कैंपेन को ज्यादा से ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए करेगी।
पुराना है आइडिया
डोनेशन वाली ये चुनावी स्ट्रेटेजी बहुत पुरानी है। इसका इस्तेमाल सबसे पहले बहुजन समाज पार्टी (BSP) के संस्थापक कांशीराम ने किया था… 1988 में। दरअसल 1988 में इलाहबाद संसदीय सीट पर उपचुनाव होना था। सत्ता को दलितों की चौखट तक लाने की चाह रखने वाले कांशीराम इस सीट पर चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे। तब कांशीराम ने ‘एक वोट, एक नोट’ का नार दिया।
कांशीराम ने एक डिब्बा ख़रीदा और एक रेड़ी किराये पर लिया। रेड़ी पर हारमोनियम लेकर गाना गानेवालों का साज-बाज रखा और उस रेड़ी के पीछे-पीछे ‘एक वोट के साथ एक नोट’ डालनेवाला डिब्बा लेकर चलने लगे।
कांशीराम बहुजन समाज के लोगों से अपील करते थे कि अगर आप मुझे अपना एक वोट देना चाहते हैं तो एक नोट भी दीजिए। क्योंकि मैं बहुजन समाज का निर्धन हूं और मेरी लड़ाई धनवानों (मनुवादी समाज) से है। लोगों ने अभियान में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
तमाम राजनीतिक दल हैरान थे कि ये कैसा उम्मीदवार है जो वोटरों से पैसा ले रहा है। कांशीराम 1988 का ये उप चुनाव तो नहीं जीत पाए लेकिन ये अभियान कारगर साबित हुआ, उन्हें मिलने वाले वोट का अंदाज़ा पहले ही लग गया।
चुनाव में वी. पी. सिंह की जीत हुई वी पी सिंह को 2 लाख से ज्यादा वोट मिले और कांशीराम को 69,517 वोट।