‘राम’ की अनेक मिथकीय छवियां मिलती हैं, जिनमें कई राम तो ऐसे हैं कि मूढ़-भक्त पढ़ लें तो दंगा कर दें। उनमें से एक हैं आपके ‘राम’। कहा जाता है कि पहली बार रामलीला का मंचन स्वयं तुलसी ने ही शुरू किया था।

लेकिन आज़ाद भारत में उत्तरोत्तर क्रमशः धार्मिक सत्ता प्रतिष्ठानों में संगठित तौर पर ‘राम’ की एक खास छवि वाली रामलीलाओं के मंचन से लेकर अखंड रामायण के पाठ तक ‘राम’ की अनेक छवियों में से एक ‘छवि’ की सायास प्रतिष्ठापना देखी जा सकती है।

बाकी का काम टीवी आने के साथ रामानन्द सागर ने कर दिया। जो ‘राम’ शुरुआत में मुख्य त्योहारों में मुख्य बाज़ार के चौराहों पर मंडप या इलाक़े के सबसे ताकतवर व्यक्ति के यहाँ अखंड पाठ में या टीवी पर धूप-बत्ती दिखा ‘रामायण’ में थे, वे देखते-देखते ‘काऊ बेल्ट’ में घर घर ‘राम’ पूजे जाने लगे, घर घर पसरने लगे।

आज़ाद हुए मुल्क की राजनीति ने समानांतर रूप से ‘राम’ केन्द्रित मिथकीय सामाजिक-सांस्कृतिक की आरोपित एकरूपता को अपना एजेंडा बनाकर भुनाना शुरू कर दिया। 1948 से होते हुए 1989 और फिर 1992 तक ये ख़ास ‘राम’ मिथकों से निकलकर पार्टियों के घोषणापत्रों व हत्यारे नारों तक में जी उठे।

लाज़िम है कि ‘राम’ की अनेक छवियों में इन्हीं ख़ास ‘राम’ से राजनीति सध सकती थी, तो सधी। ऐसे में ‘राम’ केन्द्रित मिथकों की समग्र वैज्ञानिक तार्किक समालोचना के साथ ‘प्रति-राम’ जैसे कुछ नए नैरेटिव रचने की महती ज़िम्मेदारी विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों पर भी थी। लेकिन हिन्दी विभागों ने सबसे ज़्यादा अन्याय ‘राम’ के साथ किया। हिन्दी विभागों में भक्तों, राजनेताओं के खास ‘राम’ ही छाए रहे; भक्ति भाव में लहालोट हो भाषिक कलाबाजी के कीर्तन ही ज़्यादा हुए।

धार्मिक अंध-भक्तों के ‘पुरुषोत्तम राम’, राजनीति के ‘कट्टर राम’, टीवी धारावाहिकों के ‘चाकलेटी राम’ से मुल्क को बचाकर ‘राम’ की विविध छवियों से होते हुए ‘प्रति-राम’ नैरेटिव तक ले जाने की अपनी ज़िम्मेदारी से हिन्दी विभाग साज़िशन चूक गए।

हिन्दी विभागों के बाहर कुछ अधिक महत्वपूर्ण काम हुए, जिनमें राम “राम” न बचे। लेकिन हिन्दी विभागों ने ‘राम’ को लेकर एकायामी अप्रोच अपनाया, क्योंकि ‘राम’ पर लिखने वाले कमोबेश सवर्ण थे, सवर्ण ही बने रहे। एकाध प्रगतिशील आलोचना हुई, तो हिन्दी विभागों ने न तो उन्हें पढ़ने दिया और न स्वीकारा।

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रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, शिवदान सिंह चौहान ने तुलसी के बहाने ‘राम’ को बल भर धोया है, उसे हिन्दी विभागों ने शुक्ल, पाण्डेय, त्रिपाठी, मेघ, मिश्र के आगे मिटा दिया और तुलसी अमर हो गए, तो उनके ‘राम’ छा गए।

आज़ाद मुल्क में विश्वविद्यालयों को ज्ञानमीमांसा के नवोन्मेष की संकल्पना के साथ आकार लेना था। समाज-संस्कृति व राजनीति में शक्ति-सत्ता द्वारा आरोपित रूढ़ मान्यताओं की आलोचना से किसी भी समाज में वैज्ञानिक समझ को विकसित करना इन्हीं के ज़िम्मे था।

लेकिन मुल्क के हिन्दी विभागों ने ठीक इसके विपरीत काम किया। साहित्य में हिन्दी विभागों से बाहर बहुत कुछ हुआ, लेकिन प्रोफ़ेसरों तक ही मामला सिमटा रहता, तो बेड़ा गर्क होने में देर न लगती। अभी यह बात मैं ‘राम’ को लेकर ही कहना चाहता हूँ।

सबाल्टर्न विमर्शों के बाद तो ‘राम’ ध्वस्त हो गए। लेकिन आज भी उन विमर्शों के अनुत्तरित सवालों को हिन्दी विभागों ने अपने यहाँ जगह न देकर ‘राम-राम’ जपने वाले पाठ्यक्रम व विद्वान रचे हैं। भरोसा न हो तो रामनवमी के बाद हिन्दी विभाग के किसी प्रोफेसर को तुलसी पर बोलने के लिए बुला लीजिएगा।

सोशल मीडिया ने वह जगह दी है, जहां सब उधड़ते हैं। ‘राम’ भी उधड़ेंगे। ‘प्रति-राम’ के नए नाइरेटिव आएंगे, जिसमें राम शंबूक के सामने, सीता निर्वासन के समय खड़े होकर माफ़ी मांग रहे होंगे। ‘राम-राम’ की बजाय हिन्दी विभाग भी ‘जय श्री राम’ होने को आमादा हैं। कौन रोक सकेगा इन्हें…

लक्ष्मण यादव दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं

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