“मारो साली को!”
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस पर शिक्षा को बचाने के मकसद से जेएनयू से निकले जुलूस को तितर-बितर करते हुए कोई पुलिसवाला चिल्लाकर यही कह रहा था – “मारो साली को”। लड़कियों को पुलिसवाले गंदे तरीके से छू रहे थे। महिला पुलिसकर्मी लड़कियों के कपड़े फाड़ रही थीं। शिक्षा को बचाने की बात करना कितना ख़तरनाक़ है!
एक सवाल है। सत्ता के लिए कोई लड़की कब ‘साली’ बन जाती है?
— जब वह लड़कियों का यौन उत्पीड़न करने वाले संघी प्रोफ़ेसर पर आठ एफ़आईआर होने के बाद उसे एक घंटे में बेल देने का विरोध करने सड़क पर निकलती है।
— जब वह शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने वाली ऑटोनोमी के विरोध में नारे लगाती है।
— जब वह हॉस्टल को जेल बनाने की साज़िश का विरोध करती है।
— जब वह दलितों, आदिवासियों आदि को उच्च शिक्षा से दूर करने वाली सीट कटौती को देश के ख़िलाफ़ उठाया गया कदम बताती है।
ऐसे दर्जनों कारण यहाँ गिनाए जा सकते हैं। जनविरोधी सरकार कितनी आसानी से अपने ही नागरिक को समानता का अधिकार माँगने पर अपराधी बता देती है!
जिस समय जेएनयू और दूसरे विश्वविद्यालयों के साथी संसद की तरफ़ जा रहे थे, उसी समय जेएनयू में कुछ लड़कियाँ महिला गार्डों की हिंसा का सामना कर रही थीं। कारण? वही, अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाना। जब तक हिंसा में यकीन रखने वाले लोग सरकार चलाएँगे तब तक लड़कियाँ न कैंपस में सुरक्षित रहेंगी न कैंपस के बाहर।
पुलिस ने घायल साथियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर कर दी है। शांत जुलूस पर अचानक हमला करना और हमले का सामना कर रहे लोगों पर हिंसा का आरोप लगाना… पुलिस ने साज़िश को रचनात्मकता की किस ऊँचाई तक पहुँचा दिया है!
अगर सरकार का यह मानना है कि सड़क पर किसी लड़की के कपड़े फाड़ने से आंदोलन की कमर टूट जाती है तो उसकी समझदारी पर तरस ही खाया जा सकता है। भारत की बेटियाँ ऐसी हज़ारों साज़िशों को धूल चटा देंगी। वे आने वाली पीढ़ियों के शिक्षा के अधिकार को बचाने के लिए बार-बार सड़कों पर निकलेंगी।
पुलिस ने महिला पत्रकार के साथ यौन हिंसा किए जाने के लिए माफ़ी माँग ली है। लेकिन विश्वविद्यालयों की उन लड़कियों से कौन माफ़ी माँगेगा जिन्हें बार-बार पुलिसवालों की यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है? उम्मीद है कि मीडिया के प्रगतिशील साथी इस आधी-अधूरी माफ़ी से संतुष्ट नहीं होंगे।
जिस शिक्षा की मदद से आज़ाद भारत में समानता लाने का सपना देखा गया, आज उसी शिक्षा को बाज़ार का माल बनाकर असमानता बढ़ाने का साधन बना दिया गया है। ऐसा करना लोकतंत्र की हत्या करने के समान ही तो है। हमारा तो यह नारा है
“राष्ट्रपति हो या चपरासी की संतान
सबको शिक्षा एक समान”
सरकार चाहे जितनी हिंसा कर ले, हम इस नारे के साथ बार-बार सड़कों पर निकलते रहेंगे। कल भी हज़ारों शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा को बचाने के लिए सड़कों पर निकले थे, आगे भी निकलेंगें। लड़ेंगे, जीतेंगे।
(जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार की फेसबुक वॉल से साभार)