रिश्तेदार की शादी थी 14 जनवरी को। उसके लिए नए कपड़े सिलवाए थे आसिफ़ा ने। फिर वो गुम हो गई। इससे पहले कि उसकी लाश मिलती, दर्ज़ी के यहां से उसके कपड़े सिलकर आ गए। अगर उन्हें बदला ही लेना था, तो वो किसी और से ले सकते थे। वो तो एक मासूम बच्ची थी। उसे अपने हाथ और पांव का अंतर नहीं पता था। कि मेरा दायां हाथ कौन-सा है और बायां हाथ कौन-सा है। कभी उसने ये नहीं समझा कि हिंदू क्या होता है और मुसलमान क्या होता है।

बहुत हिम्मत करके पढ़िएगा ये शब्द। ये किसी आम बाप का कहा नहीं है। ये उस आठ साल की बच्ची के पिता ने कहा है, जिसका गैंगरेप करके मारकर फेंक दिया गया। बस इसलिए कि वो एक खास धर्म (मुसलमान) और खास बिरादरी (बकरवाल) से थी, ये बात चार्जशीट में कही गई है। इंडियन एक्सप्रेस ने इस परिवार से बात की। घाटी में सर्दियों का मौसम खत्म हो गया है। हर साल की तरह गर्मियां आते ही बकरवाल बिरादरी अपनी भेड़ें लेकर ऊपर पहाड़ों पर चली जाती है। मगर ये साल बाकी सालों-सा नहीं है। उनकी आठ बरस की बच्ची के साथ हुई हैवानियत चंद लोगों के अलावा पूरे मुल्क का कलेजा मथ रही है। जो सुनता है, कलप उठता है।

कठुआ में आसिफा के गैंगरेप और मर्डर के बाद मामले में जैसी छीछालेदर हुई, उसे लेकर लोगों में बहुत गुस्सा है। आसिफ़ा परिवार में सबसे छोटी थी। दो भाइयों की अकेली बहन। एक भाई 11वीं में पढ़ता है। दूसरा छठी में। आसिफ़ा इनकी अपनी बेटी नहीं थी, गोद लिया था उसको, जब वो बस एक साल की थी। आसिफ़ा के (मौजूदा) मां-बाप के दो बच्चे एक हादसे में गुजर गए थे। इस सदमे से टूटे आसिफ़ा के अब्बू ने अपनी बहन ये बच्ची गोद ली। वो बच्ची भी अब नहीं रही। ये दो परिवारों के लिए सदमे वाला है, जिन्होंने पैदा किया और जिन्होंने पाला।

जब परिवार के मर्द भेड़ चराने ऊपर पहाड़ पर चले जाते, तब आसिफ़ा और उसकी मां गांव में अकेले रहते। वो छोटी सी बच्ची मां का हाथ बंटाती। उसे जानवरों से बहुत मुहब्बत थी। घर के घोड़ों से। भेड़ के दो नए पैदा हुए मेमनों से। एक कुत्ता भी था। जिसको आसिफ़ा रोज खाना खिलाती थी। परिवार के पास अब बस यादें बची हैं।

उसके अब्बू कहते हैं:

जब भी मैं घर से बाहर जाता, वो भी साथ जाने की जिद करती। अब उन्हें याद है कि आसिफ़ा आखिरी बार कब घर से बाहर निकली थी। वो जनवरी का महीना था। नए साल का पहला हफ्ता। आसिफ़ा अपनी मां के साथ सांबा गई थी। एक रिश्तेदार की शादी में पहनने के लिए नए कपड़े सिलवाने थे। 14 जनवरी को शादी होनी थी। 10 जनवरी को आसिफ़ा गुम हो गई। 17 जनवरी को उसकी लाश मिली। लाश मिलने से पहले ही दर्जी ने नए कपड़े सिलकर दे दिए थे। आसिफ़ा अपने नए कपड़े भी नहीं देख पाई।

आसिफ़ा की मां ने उसके लिए कुछ सोचा था। कि इस साल गर्मियों में उसका दाखिला एक प्राइवेट स्कूल में करवाएंगी।

उसकी अम्मी ने कहा:

हमने ये नहीं सोचा था कि हम अपनी बच्ची को डॉक्टर बनाएंगे या कि टीचर बनाएंगे। हमने इतनी बड़ी सोच रखी ही नहीं थी। हमने तो ये सोचा था कि पढ़-लिख जाएगी, तो अपने को देख लेगी। अपना वक्त गुजार लेगी। रहने का तरीका आ जाएगा। खूबसूरत थी, अच्छे घर में चली जाएगी। हमने कभी नहीं सोचा था कि हम उसे शैतानों के हाथों खो देंगे।

कठुआ में इतने सारे घुमक्कड़ कबीले वाले रहते हैं। उनमें से किसी के साथ भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। आज से नहीं रहते ये लोग यहां पीढ़ियों से रहते आए हैं।

आसिफ़ा के पिता कहते हैं:

हमारी बेटियां इलाके के स्कूलों में पढ़ने जातीं। हम अपने हिंदू पड़ोसियों के साथ भाई-बहन की तरह रहते। एक-दूसरे के घर जाते। उनकी शादियों में, जश्न में शरीक होते। मगर पिछले कुछ सालों से चीजें बदलने लगीं।

कैसे? वो बताते हैं:

वो लोग (आसिफ़ा के हत्यारे) बाकी लोगों को हमारे खिलाफ भड़काते। हम पर झूठे बेबुनियाद इल्जाम लगाते। कहते कि हम लोग जम्मू से गाय लेकर कश्मीर जाते हैं। वहां बेच आते हैं। कहते कि हम ड्रग्स बेचते हैं। हमारे जानवर उनकी खड़ी फसल को बर्बाद करते हैं। हमारे घर, हमारे मुहल्ले हिंदुओं के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे हैं। हमारे दिमाग में ऐसा कुछ नहीं था। कोई नफरत नहीं थी।

बकरवालों को अंदाजा तो था कि लोग उन्हें पसंद नहीं करते। लेकिन उस नापसंदगी का ये अंजाम होगा, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था।

आसिफ़ा के अब्बू की जुबानी:

वो लोग (सांजी राम और उसके साथी यानी हत्या-रेप के आरोपी) हमें गांव की सड़क से होकर जाने तक नहीं देते थे। हमारी भेड़-बकरियां इधर-उधर चर रही होतीं, तो वो उनको पकड़ लेते। हमें लौटाते भी नहीं। मैंने सोचा कि सांजी राम नाराज है। हमारे जानवरों ने उसकी कुछ फसल का नुकसान कर दिया। बस इस बात से गुस्सा है। नुकसान होगा। हमें थप्पड़ मारेगा। FIR लगा देंगे। या फिर जुर्माना भरना पड़ेगा। हमने नहीं सोचा था कि इतनी घिनौनी हरकत करेंगे ये।

आसिफ़ा का परिवार अब याद करता है कि उसके लापता होने के बाद वो उसे सब जगह खोज रहे थे। तब उन्हें शक भी नहीं हुआ था कि उनकी बेटी मंदिर के अंदर हो सकती है। वहां तलाशी लेने का खयाल तक नहीं आया किसी को।

वो बताते हैं:

पुलिसवाले, वो SPO दीपक खजूरिया (आरोपियों में से एक) मंदिर के बाहर खड़ा रहता। वो हमेशा रहते थे वहां हमने नहीं सोचा कि मंदिर की तलाशी लें। हमें मालूम था कि वो बहुत पवित्र जगह होती है।

वो आगे कहते हैं, हमारी सबसे बड़ी अदालत वो अल्लाह की अदालत है। जिसमें हर किसी का फैसला होता है। हमने उसी अदालत पर छोड़ दिया है। जो मेरा रब करेगा, बस वो ही होगा। रब किसी को नहीं छोड़ता। सबको देख रहा है वो।

आखिर में उन्होंने कुछ ऐसी बात कही, जो आरोपियों को बचाने वालों के कान में ठूंस दी जानी चाहिए। जो लोग ऐसी हैवानियत करने वालों के पक्ष में हैं, उन्हें ये बात घोलकर पिला दी जानी चाहिए। शायद कुछ इंसानियत आए उनमें।

अगर किसी हिंदू बच्ची के साथ ऐसा हुआ होता, तो उसके लिए न्याय मांगने हम सड़कों पर उतर गए होते। इंसानियत पहले है कोई हिंदू है कि मुसलमान, उससे पहले वो इंसान है।

इस आखिरी लाइन के साथ आपको छोड़कर जा रहे हैं। अगर हमारे पास कोई जादू की छड़ी होती, तो हमने हर इंसान के दिमाग में इसे गोद दिया होता। हम पैदा होते हैं, तो बस इंसान होते हैं। जाति, धर्म, भाषा सब बाद की बातें हैं। इनको न मानने पर भी जीवन आराम से कट जाएगा। लेकिन अगर इंसान ही न रहे, तो क्या बचेगा?

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