हिंदी पट्टी के प्रसिद्ध अखबार ‘अमर उजाला’ ने अपने एक पत्रकार को बिना कारण बताए नौकरी से निकाल दिया है। पत्रकार का नाम प्रियांशु गुप्ता है। इनकी गलती बस इतनी थी कि इन्होंने अमर उजाला के कोबरापोस्ट स्टिंग में फंसने पर सवाल उठाते हुए फेसबुक पोस्ट लिख दिया था।

Termination letter मिलने के बाद प्रियांशु ने फेसबुक पर एक लंबा पोस्ट लिखा है। उस पोस्ट को हम प्रियांशु से इजाजत लेकर आपको पढ़वा रहे हैं।

गुड बाय अमर उजाला!
पता नहीं, मेरा ‘गुड बाय’ बोलना टेक्निकली कितना ठीक है। खासकर उस हालात में जब आपको निकाला गया हो वो भी बिना कारण बताए। हालांकि कारण पता तो सभी को है, पर आधिकारिक रूप से या लिखित में कोई उसे देना नहीं
चाहता।

इतना भी ‘भय’ किसलिए।
आप तो दावा करते हो 4.6 करोड़ पाठकों के अभूतपूर्व भरोसे का। दावा करते हो, निर्भीक पत्रकारिता के सातवें दशक का, लेकिन ‘घबरा’ गए ऐसी पोस्ट (तस्वीर- 1,2,3,4,5) से जिसे पढ़ने वाले बमुश्किल 30 लोग थे।

माफ करना, अमर उजाला!
आप बर्फ बेचने वाली कोई फैक्ट्री या कपड़ों का कारखाना नहीं कि आपके प्रबंधन को फ्रीडम ऑफ स्पीच की परिभाषा या जरूरत बताई जाए।

आप 21 महीने से अपने यहां काम कर रहे शख्स को बिना किसी नोटिस, बिना किसी चेतावनी, बिना कारण बताए निकाल फेंकते हो। आप निकाल फेंकते हो उसे, जिसका तीन महीने बाद ट्रेनिंग पीरियड पूरा होने वाला था और प्रमोशन टेस्ट की वह तैयारी कर रहा था। आप निकाल फेंकते हो उसे, जिसने दूसरी जगह अवसरों के बाद भी आपका साथ नहीं छोड़ा, क्योंकि आप बाकियों से ज्यादा बेहतर थे।

आखिर क्यों:-

क्योंकि उसने उस मुद्दे पर लिखा जिस पर ज्यादातर लोग चुप थे (हैं) या उन्होंने बोलने की जरूरत नहीं समझी? हालांकि असहमत उनमें भी कई हैं।

क्योंकि आपने उसकी आलोचना को अन्यथा लिया और ‘बगावत’ समझी। भूल गए कि वह सिर्फ आपका Employ नहीं, पाठक भी है। जो आपकी खबरों पर यकीन करता था। #कोबरापोस्ट के स्टिंग के बाद उसके या उस जैसों के हिल चुके भरोसे को दोबारा हासिल करने के लिए अपने क्या कदम उठाए?

आखिर यह कैसे संभव है कि वह दूसरे मीडिया संस्थानों की कारगुजारियों पर तो बोले, लेकिन अपने संस्थान पर लगे आरोपों पर चुप्पी साध ले?

यह तर्क अजीब है कि अपने ‘परिवार’ के मामले पर खुलेआम टीका कौन करता है। यही बात है तो आप सुधीर चौधरी की कथित उगाही पर भी नहीं बोलते। नहीं बोलते, जागरण के एंगल ऑफ न्यूज या प्रॉयोरिटी ऑफ न्यूज पर। चुप हो जाइए, ‘हल्ला बोल’ व ‘दंगल’ के सब्जेक्ट और कंटेंट पर।

आखिर अपने Discontinuation को क्या समझूं:-

1- क्या यह आपका आधिकारिक स्टैंड है कि भविष्य में अल्पसंख्यक विरोधी खबर या विज्ञापन के प्रकाशन का (पैसे लेकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ खबर छापने वाला आरोप कोबरापोस्ट का है, जिसकी मैं पुष्टि नहीं करता) विरोध करने वाले को ऐसे ही निकाल दिया जाएगा?

2- क्या आपके 4.6 करोड़ पाठकों में अल्पसंख्यक नहीं? अगर हैं, तो क्या उनकी सुरक्षा के प्रति बतौर रिस्पेक्टेड मीडिया संस्थान आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?

3- क्या मेरा Discontinuation आपके यहां काम करने वाले दूसरे लोगों को अलिखित चेतावनी है कि वे किसी
भी स्थिति में प्रबंधन के किसी भी फैसले की आलोचना न करें?

4- क्या आपका कोई Employ बिना वर्किंग प्लेस जाहिर किए कि कुछ ऐसा नहीं लिख सकता जिसमें आपकी आलोचना हो? क्या यह उसके निजी विचारों में हस्तक्षेप नहीं? क्या आप चाहते हैं कि वह अपनी ‘स्वामिभक्ति’ अपने काम के अलावा आप पर लगे आरोपों पर चुप रहकर भी साबित करे?

5- कोबरापोस्ट के स्टिंग पर आपकी आधिकारिक प्रतिक्रिया क्या है? क्या आपने स्टिंग में ‘पकड़े’ गए आरोपी अधिकारियों के खिलाफ भी कोई कार्रवाई की?

6- अगर कोई पाठक स्टिंग के मुद्दे पर आपके
किसी कर्मचारी से सवाल करे, तो वह Employ उसे क्या जवाब दे?

आखिरी सवाल आंतरिक लोकतंत्र पर पूछता, लेकिन जाने दीजिए। जिसनें लिखित में ‘राजाज्ञा’ बना रखी हो कि वह बिना कारण बताए भी निकाल सकता है, उससे यह सवाल करना सवाल का अपमान है।

प्रिय अमर उजाला!
जानता हूं, इसके बाद शायद ही मुझे कहीं नौकरी मिले। क्योंकि झूठ बोलूंगा नहीं कि मैंने खुद जॉब छोड़ी और सच जानने के बाद मुझे कोई रखेगा नहीं। नहीं पता, रोजी-रोटी के लिए आगे क्या करूंगा। यानी मेरे पत्रकारिता के संक्षिप्त करियर का यह अंत है। यानी मुझसे वो चीज छीन ली गई, जिसके लिए मैंने चार साल पढ़ाई की, ख़्वाब देखे। माता-पिता ने कई बार उधार मांगकर खर्चे भेजें, फीस भरी।

खैर दुख तो है, लेकिन खेद नहीं।

कुछ न कुछ तो कर ही लूंगा। मीडिया में नहीं तो कहीं और। और हां, इस Discontinuation letter को लेमिनेट करवा कर रखूंगा। यह भी एक उपलब्धि है; मुझे अब तक हासिल डिग्रीयों में सबसे महत्वपूर्ण। यह मेरे चींटी प्रयास का लिखित ब्योरा है कि उस वक्त मैंने क्या किया, जब मुल्क में चुनाव जीतने के लिए अल्पसंख्यकों के नरसंहार का माहौल बनाया जा रहा था। कई इलाकों में दंगे हो रहे थे, घर-दुकानें फूंकी जा रही थीं, लोग बर्बाद हो रहे थें, बिलख रहे थे; हां वे लोग जिनके पूर्वजों ने बंटवारे के वक्त विकल्प होने के बावजूद यहीं रुकना पसंद किया। जिन्होंने जिन्ना की बात मानने से साफ इनकार कर दिया कि ‘पाकिस्तान का विरोध करने वाले मुसलमानों का जीवन भारत के प्रति अपनी निष्ठा का सबूत देते हुए बीतेगा।

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