राफेल विमान समझौते को लेकर मोदी सरकार की आखिरी दलील भी अब ख़त्म हो गई है। अब प्रधानमंत्री मोदी का उनके ऊपर उठे सवालों से बचाना मुश्किल होगा।

अभी तक मोदी सरकार का कहना था कि उसने इस समझौते में अनिल अम्बानी की कंपनी ‘रिलायंस डिफेन्स लिमिटेड’ का नाम फ़्रांस को नहीं दिया था बल्कि फ़्रांस की कंपनी ‘डासौल्ट’ ने खुद उसे अपना पार्टनर चुना था।

लेकिन इस समझौते के समय फ़्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांसा ओलांदे ने फ़्रांस के न्यूज़ संगठन ‘मीडियापार्ट’ के साथ इंटरव्यू में कहा है कि फ़्रांस ने रिलायंस को खुद नहीं चुना था बल्कि भारत सरकार ने रिलायंस कंपनी को पार्टनर बनाने का प्रस्ताव दिया था।

अभी तक मोदी सरकार पर ये आरोप था कि उसने भारत की सरकारी कंपनी ‘हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड’ का नाम समझौते से हटाकर अनिल अम्बानी की ‘रिलायंस डिफेन्स लिमिटेड’ का नाम विमान समझौते में दिया।

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क्या है विवाद

राफेल एक लड़ाकू विमान है। इस विमान को भारत फ्रांस से खरीद रहा है। कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि मोदी सरकार ने विमान महंगी कीमत पर खरीदा है जबकि सरकार का कहना है कि यही सही कीमत है। ये भी आरोप लगाया जा रहा है कि इस डील में सरकार ने उद्योगपति अनिल अंबानी को फायदा पहुँचाया है।

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बता दें, कि इस डील की शुरुआत यूपीए शासनकाल में हुई थी। कांग्रेस का कहना है कि यूपीए सरकार में 12 दिसंबर, 2012 को 126 राफेल विमानों को 10.2 अरब अमेरिकी डॉलर (तब के 54 हज़ार करोड़ रुपये) में खरीदने का फैसला लिया गया था। इस डील में एक विमान की कीमत 526 करोड़ थी।

 

इनमें से 18 विमान तैयार स्थिति में मिलने थे और 108 को भारत की सरकारी कंपनी, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल), फ्रांस की कंपनी ‘डासौल्ट’ के साथ मिलकर बनाती। 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी फ़्रांस यात्रा के दौरान इस डील को रद्द कर इसी जहाज़ को खरीदने के लिए में नई डील की।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, नई डील में एक विमान की कीमत लगभग 1670 करोड़ रुपये होगी और केवल 36 विमान ही खरीदें जाएंगें। नई डील में अब जहाज़ एचएएल की जगह उद्योगपति अनिल अंबानी की कंपनी बनाएगी।

जबकि अनिल अम्बानी की कंपनी को विमान बनाने का कोई अनुभव नहीं है क्योंकि ये कंपनी राफेल समझौते के मात्र 14 दिन पहले बनी है। साथ ही टेक्नोलॉजी ट्रान्सफर भी नहीं होगा जबकि पिछली डील में टेक्नोलॉजी भी ट्रान्सफर की जा रही थी।

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