आज जब पूरे देश में एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम को कमज़ोर किए जाने का विरोध करते हुए भारत बंद की घोषणा की गई है तब मुझे सबसे ज़्यादा रोहित वेमुला की याद आ रही है। जिन लोगों ने उनकी सांस्थानिक हत्या की, वे आज भी आज़ाद घूम रहे हैं क्योंकि सरकार की साज़िशों के कारण एफ़आईआर को एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज होने ही नहीं दिया गया।

जो लोग इस एक्ट के ग़लत इस्तेमाल की बात कह रहे हैं, उन्हें पहले इसे इस्तेमाल में नहीं आने देने के मामलों की छानबीन करनी चाहिए। अब जब ऐसे मामलों में गिरफ़्तारी से पहले एसएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी से जाँच कराने का नियम बनाया गया है तब दलितों और आदिवासियों के लिए इंसाफ़ पाना पहले से ज़्यादा मुश्किल हो जाएगा।

कभी घोड़ी की सवारी करने पर दलितों की हत्या हो जाती है तो कभी सार्वजनिक हैंडपंप या आटा चक्की का इस्तेेमाल करने के कारण। जिस तरह एक साहित्यिक रचना में कालिदास उसी डाली को काट रहे थे जिस पर वे बैठे थे, उसी तरह देश के सत्ताधारियों और जातिवादियों ने उन्हीं देशवासियों को आगे नहीं बढ़ने दिया जिनकी प्रतिभा का पूरे देश को फ़ायदा मिल सकता है। कई बार दलितों और आदिवासियों के साथ की गई हिंसा हमें दिखती नहीं है।

2017-18 के अकादमिक सत्र में जेएनयू में मात्र दो एससी और दो एसटी विद्यार्थियों को आरक्षित सीटों पर एडमिशन मिला। पहले सीटें ख़त्म की गईं, फिर बची-खुची सीटों में भी बहुत कम सीटों पर एडमिशन दिया गया।

क्या यह नीतिगत हिंसा नहीं है? दलितों, आदिवासियों आदि को शिक्षा से दूर रखने के लिए कभी ऑटोनोमी की साज़िश रची जाती है तो कभी फ़ीस बढ़ा दी जाती है। देश के विकास को कौन रोक रहा है? कौन है देशद्रोही?

लड़ाई लंबी है, लेकिन इसे जारी रखने के लिए बाजुओं की कमी नहीं है। पूरा देश जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ पूरी मज़बूती के साथ खड़ा हो रहा है। लड़ेंगे, जीतेंगे।

(जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के फेसबुक वॉल से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here