कुछ लोग कह रहे हैं कि लेनिन विदेशी थे इसलिए भारत में उनकी मूर्ति का क्या औचित्य है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि भगत सिंह देश की आज़ादी के लिए फाँसी को गले लगाने से कुछ ही देर पहले लेनिन की किताब पढ़ रहे थे।

उन्होंने कहा था, “एक क्रांतिकारी को दूसरे क्रांतिकारी से मिलने दो।”

क्या विदेशियों को दूर रखने वाले तर्क से हमें अपने देश में विदेशी वैज्ञानिकों के आविष्कारों को जला देना होगा या प्रगतिशील विदेशी विचारकों के विचारों को बर्बरता की टोकरी में फेंक देना होगा?

कल वे कहेंगे कि भारत में सेब गिरेगा तो नीचे नहीं जाएगा क्योंकि इसका वैज्ञानिक आधार बताने वाला न्यूटन भारत में नहीं जन्मा था। संसद भवन और राष्ट्रपति भवन भी विदेशी इंंजीनियर ने बनाया, तो क्या उन्हें भी गिरा देना चाहिए?

विज्ञान और विचार देश की सीमा से परे होते हैं। वे राष्ट्रवाद के जिस ब्रांड को कॉपी-पेस्ट कर रहे हैं, वह भी हिटलर और मुसोलिनी का है। आरएसएस जो ड्रेस पहनता है, वह भी विदेशी है। न्यूटन और डार्विन भी नागपुर में नहीं पैदा हुए थे।

उन्हें मूर्तियाँ गिराने दीजिए, आप मूर्ति वाले व्यक्ति की विचारधारा को जीवन में मूर्त रूप देने की कोशिश कीजिए।

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