मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले को जनता विरोधी फैसले के रूप में देखा गया है। इसके बावजूद सरकार अपने इस फैसले का पक्ष लेते नज़र आती है। लेकिन अब सरकार की संस्थान ने भी अपनी रिपोर्ट में इस फैसले को गलत बताया है।
बता दें, कि महाराष्ट्र के छोटे स्तर के वैचारिक संगठन (थिंक टैंक) ‘अर्थ क्रांति’ ने नोटबंदी का फैसला लेने की सिफारिश की थी। जब अर्थ क्रांति की ओर से यह प्रस्ताव आया तो मध्य प्रदेश और हरियाणा की भाजपा सरकारों ने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक फायनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफ़पी) को इसका अध्ययन करने के लिए कहा। एनआईपीएफ़पी को केंद्रीय वित्त मंत्रालय से ही आर्थिक सहयोग मिलता है।
इस संस्थान की रिपोर्ट जून-2017 में जारी की गई थी। यानी तब जबकि नोटबंदी का फ़ैसला हुए सात महीने बीत चुके थे। तो इसके साथ ही ये भी साबित होता है कि नोटबंदी को लेकर सरकार ने कितनी कम तैयारी की थी और ये फैसला कितना आर्थिक या कितना राजनीतिक था।
रिपोर्ट में साफ़ कहा गया कि ज़मीनी हालात के हिसाब से देखें तो नोटबंदी जैसे फ़ैसले की ज़रूरत ही नहीं है (इसे अब ‘थी’ समझना चाहिए)।
संस्थान ने दो सवालों पर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। पहला- क्या देश की अर्थव्यवस्था में बहुत ज़्यादा नगदी हो गई है? दूसरा- क्या बड़े नोटों की तादाद ज़रूरत से ज़्यादा हो गई है?
रिपोर्ट में आयात-निर्यात, मुद्रा स्फीति (महंगाई), ब्याज़ दरें, औद्योगीकरण की स्थिति के आधार पर ये निष्कर्ष निकाला गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के ढांचे में मुद्रा का स्तर बहुत ज़्यादा नहीं है, क्योंकि बाज़ार को उसकी ज़रूरत भी ज़्यादा महसूस नहीं हो रही है।
संस्थान ने क़रीब 25 अर्थव्यवस्थाओं से भारत की तुलना की। इसके बाद उसने रिपोर्ट में लिखा, ‘दूसरी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में जब हम भारतीय मौद्रिक व्यवस्था में बड़े नोटों के हिस्से का आकलन करते हैं तो पाते हैं कि आनुपातिक रूप से भारत की स्थिति बेहतर ही है।’
नोटबंदी के समय देश की अर्थव्यवस्था में 86 फ़ीसदी बड़े नोट थे और अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे देशों की अर्थव्यवस्था में भी बड़े नोटों की हिस्सेदारी क़रीब-क़रीब इतनी ही थी। इस आकलन के बाद एनआईपीएफ़पी ने फ़िर यह निष्कर्ष दिया कि इस मोर्चे पर भी भारत की स्थिति दूसरे देशों से अलग नहीं है।
रिपोर्ट में बताया गया, कि मान लीजिए बड़े नोट अर्थव्यवस्था से, मौद्रिक तंत्र से हटा दिए जाते हैं। तब भी उस फ़ैसले के बाद जो बड़े नोट अर्थव्यवस्था में बच रहेंगे या लाए जाएंगे उनकी हिस्सेदारी फ़िर से कुल प्रचलित मुद्रा में ज़्यादा हो जाएगी। यानी घूम-फिरकर मौद्रिक तंत्र फिर से नोटबंदी के पहले वाली स्थिति में ही पहुंच जाएगा, और ऐसा हुआ भी।
आरबीआई के मुताबिक, नोटबंदी के बाद अब बाज़ार में फिर से उतने ही नोट प्रचलन में आ गए हैं जितने नोटबंदी के पहले थे। तो नकदीरहित अर्थव्यवस्था और डिजिटलीकरण जैसा कुछ बड़ा नहीं हुआ।
तो इस तरह से एनआईपीएफ़पी की रिपोर्ट की ही मानें तो ‘नोटबंदी के फ़ैसले का कोई तार्किक आधार मौज़ूद नहीं था। और न ही यह स्पष्ट था। मगर अफ़सोस की बात है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने एनआईपीएफ़पी की रिपोर्ट का इंतज़ार भी नहीं किया और नोटबंदी का ऐलान कर दिया।