आरएसएस के संयुक्त महासचिव कृष्णा गोपाल का कहना है कि भारत में छुआछूत की शुरुआत इस्लाम के आगमन के बाद हुई।

देश को दलित शब्द के बारे में नहीं पता था ये तो अंग्रेजों का षड्यंत्र था, जो ‘बांटों और राज करो’ की नीति के तहत इसको लागू किया गया।

वो यहीं नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा कि आरएसएस एक जाति विहीन समाज का समर्थन करता है।

संघ नेता ने कहा- छुआछूत का पहला उदाहरण इस्लाम के आगमन के बाद देखने को मिला। यह राजा दहीर (सिंध के आखिरी हिंदू राजा) के घर में तब देखने को मिला जब उनकी रानियां जौहर (स्वेच्छा से खुद को आग के हवाले करना) करने के लिए जा रही थीं।

उन्होंने मलेच्छ शब्द का प्रयोग करते हुए कहा कि उन्हें जल्द जौहर करना चाहिए वरना ये मलेच्छ उन्हें छू लेंगे और वह अपवित्र हो जाएंगी। ये भारतीय पाठ में छुआछूत का पहला उदाहरण था।

भीम राव आंबेडकर क्या कहते थे?

कोलम्बिया विश्वविद्यालय के सेमिनार के लिए एक पेपर लिखा, जिसका शीर्षक था ‘भारत में जातियाँ’। इसमें उन्होंने जाति की परिभाषा दी। उनके अनुसार जाति एक अन्तर्विवाही इकाई है और एक ‘ख़ुद में बन्द वर्ग’ है। एक अन्य अवसर पर उन्होंने इसका वर्णन इस प्रकार किया, ये एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जितना ऊपर जाएं तो उतना मान-सम्मान है, जितना नीचे खिसकें उतनी घृणा-अपमान है।

आज जिसको हम जाति-व्यवस्था के नाम से जानते हैं, हिन्दू धर्मग्रंथों में उसे वर्णाश्रम धर्म या चातुर्वर्ण अर्थात चार वर्णों की व्यवस्था के नाम से जाना जाता है।

हिन्दू समाज की लगभग चार हज़ार सजातीय विवाही जातियाँ और उपजातियाँ हैं, जिनमें प्रत्येक का एक विशिष्ट वंशानुगत व्यवसाय है, और जिन्हें चार वर्णों में बाँटा गया है—ब्राह्मण (पुजारी), क्षत्रिय (सैनिक), वैश्य (व्यापारी) और शूद्र (सेवक)।

इन वर्णों के बाहर अवर्ण जातियाँ हैं, अति शूद्र, अवमानवीय (मनुष्य से कमतर) जिनकी अपनी अलग श्रेणी-अनुक्रम हैं—अछूत, दर्शन-अयोग्य, समीप जाने के अयोग्य—जिनकी उपस्थिति, जिनका छूना, जिनकी परछाईं भी विशेषाधिकारप्राप्त जाति के व्यक्ति को प्रदूषित कर सकती है।

कुछ समुदायों में सजातीय प्रजनन से बचने के लिए, प्रत्येक सजातीय विवाही जाति को ऐसे गोत्रों में बाँटा गया है, जिनके अन्दर आपस में विवाह निषेध है। गोत्रेतर-विवाह का वैसी ही क्रूरता से अनुपालन कराया जाता है, जैसे विजातीय विवाह का—बड़े-बूढ़ों की सहमति से सर क़लम करके और भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या करके।

भारत के हर क्षेत्र ने बड़े प्रेम से जाति-क्रूरता के अपने अलग-अलग और अनूठे तरीक़ों में दक्षता हासिल कर ली है। यह अलिखित नियम-संहिता अमेरिका के नस्लवादी ‘जिम क्रो’ क़ानून से भी कहीं ज़्यादा बदतर है। पृथक् बस्तियों में रहने को मजबूर करने के अलावा, अछूतों पर उन सार्वजनिक मार्गों का प्रयोग निषेध था जिन्हें विशेषाधिकारप्राप्त जातियाँ प्रयोग करती थीं।

दलितों को सार्वजनिक कुओं का पानी पीना मना था, वे हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे, विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के स्कूल में उनका प्रवेश निषेध था, उन्हें अपने जिस्म का ऊपरी भाग ढकने की मनाही थी, हर प्रकार के कपड़े पहनने की उन्हें स्वतंत्रता नहीं थी, बस कुछ घटियाक़िस्म के कपड़े और आभूषण ही पहनने की उन्हें इजाज़त थी।

कुछ जातियों को, जैसे महार, जिस जाति में आंबेडकर पैदा हुए थे, उन्हें अपनी कमर से झाड़ू बाँधना होता था ताकि उनके प्रदूषित पदचिह्नों पर ख़ुद-ब-ख़ुद झाड़ू लगती जाए। अन्य को अपने गले में मटकीनुमा थूकदान लटकाना होता था, ताकि उनका थूक ज़मीन पर गिरकर, ज़मीन को अपवित्र न कर दे।

विशेषाधिकारप्राप्त जातियों के पुरुषों को अछूत महिलाओं के जिस्म पर अविवादित अधिकार हासिल था।

प्रेम प्रदूषित करता है, लेकिन बलात्कार पवित्र है!

इसे महज इतिहास कहकर टाला नहीं जा सकता क्योंकि भारत के कई हिस्सों में आज भी ये सब जारी है।

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