जीत बहुत बार हाज़मा बिगाड़ देती है, घमण्ड और क्रूरता को सर पर चढ़ा देती है। जीत को सम्भाल पाना हल्के लोगों के बस की बात नही। त्रिपुरा में यह जो लेनिन की मूर्ति मदहोशी में गिराई गई है। यह तकलीफ़देह है, आखिर कोई किसी से इतनी नफ़रत कैसे कर सकता है।

उनके मन मुताबिक कुछ नही होगा तो देश सीरिया बन जाएगा। उनके विचार से जो मेल नही खाएगा वह मारा जाएगा,मर गया है तो उसकी मूर्तियाँ तोड़ेंगे। उन्हें हर उससे दिक्कत है जो उनकी ज़ुबान नही बोलता,जो उनका कहा नही खाता, जो उनके ख्वाबों में अपने ख्वाब नही देखता।

उन्हें जो नही पसंद उसे ढहा देते हैं, जैसे तालिबान ने बामियान में बुद्ध को ढहा दिया था और बहुत खुश थे की आज बुद्ध ज़मीदोज़ हो गए,जबकि वक़्त ने बता दिया की बुद्ध फिर भी मुस्कुरा रहें और तालिबान कहाँ मिट गया।

बामियान से बुद्ध की मूर्ति दूर दूर पहुँच गई,वैसे ही यह गिरते हुए लेनिन के स्टेच्यू को देखो आज किस किस की वाल पर पहुँचकर घर घर में दिखने लगा,तुम पर हर तरफ हँस रहें हैं लोग।

यह लेनिन को कभी समझ ही नही पाएँगे,जो अपनी ज़मीन पर मौजूद गाँधी को नही समझ सके,उनके ख़ून पर मिठाइयां बाँटी, गाहे बगाहे गाँधी पर फब्तियां कसें वह लेनिन के पाँव को भी नही छू सकते।

बदकिस्मत,बेहया और मगरूर भीड़ निर्माण नही विध्वंस ही करती है। त्रिपुरा में लेनिन नही गिरे हैं बल्कि वह गिरें हैं जिनसे जीत सम्भाले नही सम्भल रही।

नोट- यह पोस्ट फेसबुक से हाफिज किदवई की वॉल से साभार ली गई है

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