हम अक्सर उत्तर भारत में बदले हुई राजनीतिक परिदृश्य के लिए मंडल युग की बात करते हैं जिसके तहत पिछड़ा वर्ग अपने अधिकारों को लेकर पहली बार सचेत हुआ था। यही वक्त दलितों के भी राजनीतिक रूप से चेतनशील होने का था हालांकि उन्हें हमेशा से भारत में आरक्षण मिला हुआ था।

दलित राजनीति के सक्रिय होने का श्रेय बिना किसी संदेह कांशीराम को जाता है, कांशीराम के बारे में ऐसी 10 दस बातें जानें जिन्होंने उन्हें दलित राजनीति के उत्थान का चेहरा बनाया।

1-  बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के संस्थापक कांशीराम भले ही डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की तरह चिंतक और बुद्धिजीवी ना हों, लेकिन इस बारे में कई तर्क दिए जा सकते हैं कि कैसे अंबेडकर के बाद कांशीराम ही थे जिन्होंने भारतीय राजनीति और समाज में एक बड़ा परिवर्तन लाने वाले की भूमिका निभाई है। बेशक अंबेडकर ने एक शानदार संविधान के जरिए इस परिवर्तन का ब्लूप्रिंट पेश किया लेकिन ये कांशीराम ही थे जिन्होंने इसे राजनीति के धरातल पर उतारा है।

2-  कांशीराम का जन्म पंजाब के एक दलित परिवार में हुआ था, उन्होंने बीएससी की पढ़ाई करने के बाद क्लास वन अधिकारी की सरकारी नौकरी की। आज़ादी के बाद से ही आरक्षण होने के कारण सरकारी सेवा में दलित कर्मचारियों की संस्था होती थी। कांशीराम ने दलितों से जुड़े सवाल और अंबेडकर जयंती के दिन अवकाश घोषित करने की मांग उठाई।

3- 1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति या डीएस4 की स्थापना की। 1982 में उन्होंने ‘द चमचा एज’ लिखा जिसमें उन्होंने उन दलित नेताओं की आलोचना की जो कांग्रेस जैसी परंपरागत मुख्यधारा की पार्टी के लिए काम करते है। 1983 में डीएस 4 ने एक साइकिल रैली का आयोजन कर अपनी ताकत दिखाई, इस रैली में तीन लाख लोगों ने हिस्सा लिया था।

4- 1984 में उन्होंने बीएसपी की स्थापना की, तब तक कांशीराम पूरी तरह से एक पूर्णकालिक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे। उन्होंने तब कहा था कि अंबेडकर किताबें इकट्ठा करते थे लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं। उन्होंने तब मौजूदा पार्टियों में दलितों की जगह की पड़ताल की और बाद में अपनी अलग पार्टी खड़ा करने की जरूरत महसूस की, वो एक चिंतक भी थे और ज़मीनी कार्यकर्ता भी।

5-  बहुत कम समय में बीएसपी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी एक अलग छाप छोड़ी, उत्तर भारत की राजनीति में गैर-ब्राह्मणवाद की शब्दावली बीएसपी ही प्रचलन में लाई हालांकि मंडल दौर की पार्टियां भी सवर्ण जातियों के वर्चस्व के खिलफ थीं। दक्षिण भारत में यह पहले से ही शुरू हो चुका था, कांशीराम का मानना था कि अपने हक के लिए लड़ना होगा, उसके लिए गिड़गिड़ाने से बात नहीं बनेगी।

6- कांशीराम मायावती के मार्गदर्शक थे, मायावती ने कांशीराम की राजनीति को आगे बढ़ाया और बसपा को राजनीति में एक ताकत के रूप में खड़ा किया। लेकिन मायावती कांशीराम की तरह कभी भी एक राजनीतिक चिंतक नहीं रहीं। कांशीराम 2006 में मृत्यु से करीब तीन साल पहले से ही ‘एक्टिव’ नहीं थे।

7- कांशीराम की मृत्यु के एक दशक बाद एक बार फिर संभावना जताई जा रही है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में मायावती सत्ता हासिल करने की प्रमुख दावेदार हैं। अनेक जानकार मानते हैं कि बीएसपी उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर सकती है, यदि ऐसा होता है तो इसीलिए कि कांशीराम की विरासत आज भी ज़िंदा है और बेहतर कर रही है।

8- फिर भी इस बात को लेकर सवाल उठते हैं कि मायावती जिस तरह से ठाठ में रहती हैं उसे देखकर कांशीराम कितना खुश होते? जिस दौर में कांशीराम की विरासत मायावती के हाथों में आ रही थी उस दौर में मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे थे। हालांकि बीएसपी इन सभी आरोपों को निराधार बताती है।

9- इस बात का जवाब हमें कभी नहीं मिल पाएगा कि अपनी बीमारी और मौत के कई साल पहले ही कांशीराम ने मायावती को ही अपनी राजनीति का प्रतिनिधि क्यों चुन लिया था। खैर इसने उत्तर प्रदेश में दलितों को तो मजबूत बनाया ही, साथ ही साथ दूसरे राज्यों में भी वोट शेयर में इजाफा किया।

10- व्यक्तिगत रूप से कांशीराम एक सादा जीवन जीते थे। लेकिन इस बात को लेकर हमेशा बहस रही है कि धन-वैभव का प्रदर्शन भी दलित सशक्तिकरण का एक प्रतीक है, कांशीराम को 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में काफ़ी याद किया जाएगा।

सबा नकवी/वरिष्ठ पत्रकार

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