15 मार्च 1934 को बहुजन नायक कांशीराम का जन्म हुआ था। कांशीराम की जयंती को पूरे देश में ‘आत्मज्ञान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन देशभर से दलित समाज के लोग लखनऊ में स्थित ‘कांशीराम प्रेरण स्थल’ जाते हैं। उत्तर भारत में जिस सामाजिक परिवर्तन का सपना बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने देखा था कांशीराम ने उसे अमली जामा पहनाया।

कांशीराम दलितों-पिछड़ों के हक का नारा बुंलद करते हुए कहा था “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उनती हिस्सेदारी” यानी जिसकी जितनी संख्या है उसे सत्ता और संसाधन में उतना ज्यादा हिस्सा मिलना चाहिए।

कांशीराम का जन्म पंजाब के रोपड़ जिले के पिरथीपुर बंगा गांव में 15 मार्च, 1934 को हुआ था। उन्होंने B.sc की पढ़ाई करने के बाद क्लास वन अधिकारी की सरकारी नौकरी की। पुणे में काम करने के दौरान उन्होंने दलितों की स्थिति देखी जिससे उन्हें खुद अपनी जाति की पहचान हुई।

कांशीराम ने दलितों से जुड़े सवाल और अंबेडकर जयंती के दिन अवकाश घोषित करने की मांग उठाई। अपने मित्र द्वारा दी गई अंबेडकर की किताब “The annihilation of caste” पढकर वो बहुत प्रभावित हुए। 1971 में उन्होंने BAMCEF का निर्माण किया। उसे मजबूत बनाने के लिए उन्होंने 27 साल कड़ी मेहनत की।

1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति DS-4 की स्थापना की। ‘पूना पैक्ट’ के 100 साल पुरे होने की खुशी में कांग्रेस ने पूना पैक्ट स्वर्ण जयंती कमिटी बनायीं थी। कांशीराम ने स्वर्ण जयंती मनाए जाने का जोरदार विरोध किया। उन्होंने पूना पैक्ट के विरोध में धिक्कार परिषद् का आयोजन किया। इस अवसर (24 सिंतबर 1982) पर उन्होंने अपनी किताब ‘चमचा युग’ को प्रकाशित करवाया था।

कांशीराम ने मिशन के लिए अपने सारे व्यक्तिगत रिश्ते तोड़ दिए थे और कभी घर वापस न जाने के निर्णय लिया था। उनका कहना था कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का घर ही उनका घर है। कांशीराम ने अपने घरवालों के लिए एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने बताया कि ‘मैं कभी किसी रिश्तेदार से नहीं मिलूंगा और न ही किसी पारिवारिक कार्यक्रम में भाग लूंगा। मैं परिवार की जिम्मेदारी नहीं उठा सकता क्योंकि मेरे कंधों पर पूरे समाज की जिम्मेदारी है। मैं दूसरा कोई काम नहीं करूंगा और तब तक शांत नहीं बैठूंगा जब तक बाबा साहेब के सपनों को पूरा नहीं कर देता।’

काशीराम अपने संकल्प पर तटस्थ रहें। वे अपनी बहन की शादी में नहीं गए। इतना ही नहीं एक रोज उनकी एक बहन की अचानक मौत हो गई तब भी वो घर नहीं गए, यहा तक कि अपने पिता की मौत पर भी वे घर नहीं गए। कांशीराम अपने भाई बहनों में सबसे बड़े थें। उनको पता था कि उनके परिवार को उनसे काफी शिकायते हैं फिर भी वो अपने निर्णय पर कायम रहें।

एक बार उनकी मां उन्हें समझाने के लिए पूना (पुणे) भी आयी थी। वो वहां लगभग दो महीने रहकर उन्हें समझाने का प्रयास करती रही। लेकिन उन्होंने पाया कि उनका बेटा पूरी तरह बदल चुका है। कांशीराम रात-रातभर बाबा साहेब अंबेडकर की किताबों को लेकर बैठे रहते थें।

एक दिन उनकी मां ने कहा ‘काशिया आधी रात गुजर चुका है अब तो सो जा’

लेकिन जब कांशीराम नहीं माने तो मां ने गुस्से से उनकी किताब छिनते हुए पूछा “ऐसा क्या लिखा है इन किताबों में जो तुम इतने देर रात तक पढ़ते रहते हो?” तब शान्तिपूर्वक और प्यार से कांशीराम बोले “माँ इन किताबो में देश की सत्ता की चाबी है। और मैं उसे ही खोज रहा हूं।”

कांशीराम ने सामाजिक सांस्कृतिक और राजकीय रूप से दलितों को संपन्न बनाने का प्रयास किया। उन्होंने बहुजन समाज नाम से sc, st, और obc सभी वर्गों के लोगों को एक ही छत के नीचे लाने का प्रयास किया। अपने समाज के लोगों को उनकी वोट का महत्व समझाते हुए राजनीतिक परिवर्तन का फायदा समझाया।

14 अप्रैल, 1984 से में उन्होंने बहुजन समज पार्टी की स्थापना की। कांशीराम बीएसपी के माध्यम से दलितों को राजकीय सहभागिता देना चाहते थें। उन दिनों मंडल कमीशन की सिफारिशों की वजह से देश में कास्ट पॉलिटिक्स अपने चरम पर थी। उसी दौर में लालू यादव और मूलायम सिंह यादव जैसे नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाने लगा।

आरक्षण के मुद्दें पर देशभर में पिछड़ा बनाम अपर कास्ट की लड़ाई तेज हो गई थी। इन्ही परिस्थितियों का फायदा उठाकर कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव को साथ मिलकर अपनी पार्टी को सत्ता में लाए।

कांशीराम ने बहुजनों में इस बात की चेतना जगाई कि वो किसी भी राजनीतिक पार्टी या राजनेता का चमचा ना बने। कांशीराम ने स्वय की पार्टी भी इसी कारण से बनाई थी। कांशीराम बहुजनों में अंबेडकर के विचार भरने का लगातार प्रयास करते रहें। वो कहते थें “अंबेडकर ने किताबे इकट्टा की और मैने लोगों को इक्ट्ठा किया।’

कांशीराम अपनी साइकिल से ही पूरे उत्तर भारत में प्रचार प्रसार का काम किया करते थे। दलितों को इक्ट्ठा करने के लिए उन्होंने कई साइकिल रैलियां की थी। कांशीराम के दोस्त मनोहर आटे बताते हैं कि उन दिनों महाराष्ट्र सरकार मुख्यालय के सामने एक अंबेडकर की मूर्ति हुआ करती थी। अक्सर कांशीराम वहां बैठकर बहुजन समाज के बारें में सोचा करते थे। वही सामने एक ईरानी होटल भी था जहां वो अपनी साइकिल लगाते थे।

एक बार रात 11 बजे तक कांशीराम अंबेडकर की मूर्ति के नीचे बैठकर अपने दोस्त के साथ चर्चा कर रहे थे। उन्होंने देखा की ईरानी होटल बंद हो रहा है लेकिन उनकी साइकिल वहां से गायब है। अपनी साइकिल को ढूंढते हुए कांशीराम के आंखों में आंसू आ चुका था।

अंत में उन्होंने होटल के वेटर को डांटते हुए अपनी साइकिल के बारे में पूछा। उन्होंने कहा कि अगर साइकिल नहीं मिली तो वो पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे। पुलिस का नाम सुनते ही वेटर ने कांशीराम को उनकी साइकिल लौटा दी। साईकिल मिलने के बाद कांशीराम ने वेटर को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया।

जब उनके मित्र ने उनसे रोने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि ये साइकिल मेरे लिए बस एक वाहन नहीं है। ये मेरे मिशन को आगे ले जानेवाला सबसे बड़ा साधन है। इसे लापता पाकर मुझे मेरी जिंदगी खत्म लगने लगी थी। कांशीराम के दिल में बहुजन समाज के प्रति प्रेम देखकर उनके मित्र खुश हुए।

कांशीराम ने अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं लिखा। ना ऑटोबायोग्राफी, ना ही कोई पत्र। सिर्फ अपनी आखरी इच्छा को बताते हुए एक पत्र लिखा था…

“मेरी ख्वाहिश है कि कुमारी मायावती दीर्घायु होकर उस मिशन के लिए काम करती रहे जिसके लिए मैं समर्पित रहा। लेकिन हर आदमी को एक ना एक दिन मरना है। एक दिन में भी मृत्यु को प्राप्त हो जाऊंगा और एक दिन उनको भी मर जाना है।
मेरी ख्वाहिश है कि मेरे मरने के बाद मेरी अस्थियां गंगा-जमुना में ना बहाया जाए, बल्कि उसे बहुजन समाज प्रेरणा केंद्र में रखा जाये ताकि हमारे कार्यकर्ता उससे प्रेरणा ले सके।

मैं ये ख्वाहिश भी रखता हूं कि कुमारी मायावती की मृत्यु के उपरांत उनकी अस्थियों को भी मेरी अस्थियों के पास पार्टी कार्यलों में राखा जाए। मैं उम्मीद करता हूं कि कुमारी मायावती के माता, पिता, भाई, बहन, बहुजन समाज पार्टी तथा बहुजन समाज के लोग मेरी ख्वाहिश को पूरा करेंगे।”

– इस लेख को सायली ने लिखा है। 

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