अमेरिका के वरिष्ठ राजनेता फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने कहा था कि ‘लोकतंत्र की सबसे बड़ी रक्षक शिक्षा है’

किसी भी देश में अगर सरकार या तानाशाह को भ्रष्टाचार और सत्ता विरोधी क़दमों के बाद भी सत्ता में बने रहना है तो उसका सबसे पहला कदम होता है जनता को शिक्षा से दूर करना। क्योंकि अशिक्षित जनता सरकार के वादे और उसके काम का वेसा मूल्यांकन नहीं कर पाएगी जैसा एक शिक्षिक समाज करता है।

जनता को धर्म, जाति और आडम्बर के नशे में चूर कर फिर आसानी से राज किया जा सकता है। शायद मोदी सरकार भी कुछ ऐसा ही कर रही है।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हज़ारों की संख्या में छात्र शिक्षा के निजीकरण का विरोध कर रहे हैं। इसके लिए विरोध दर्ज कराने के लिए संसद मार्ग पर रैली करी जा रही है। दरअसल, मोदी सरकार लगातार शिक्षा पर खर्च को घटा रही है।

ये विरोध सरकार के उस फैसला का हो रहा है जिसमें उसने देश के मुख्य शिक्षा संस्थानों को स्वायत्ता दे दी है। इसके बाद यहाँ शिक्षा के महंगे होने की संभावनाएं बहुत ज़्यादा बढ़ गई हैं।

सरकार के अपने आकड़ो के अनुसार जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है तबसे वो शिक्षा का बजट घटा रही है। 2014-15 में शिक्षा का बजट एक लाख 10 हज़ार 351 करोड़ रुपये था। 2015-16 में ये 96 हज़ार 649.76 करोड़ रुपये हो गया। 2016-17 चार हज़ार करोड़ और घटाकर बजट 92,666.65 करोड़ कर दिया गया। अब 2017-18 79,685.95 करोड़ रह गया है।

मोदी सरकार के इस रवैय्ये को शिक्षा विरोधी के रूप देखा जा रहा है। बता दें, कि देश में आज भी 74% लोग ही साक्षर हैं मतलब जो अपना नाम लिख सके। उच्च शिक्षा की बात करें तो केवल केवल 8% लोग ही ग्रेजुएट हैं।

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