जब सत्ता की बंदूक अपनी संपूर्ण शक्ति का प्रदर्शन कर रहा हो। गोलियों की बौछारे की जा रही हो और सारे शक्ति विहीन मानव अपना माथा झुका रहा हो, ऐसे विषम परिस्थिति में एक साहसी बूढ़ा उस शक्तियों के खिलाफ अपनी लाठी उठा लें तो उनकी जितनी प्रशंसा की जाय वे कम हैं।

भारत के आम आवाम जब असुरक्षित महसूस कर रहे होते हैं और उन्हें जब डर का साया का आभास होता है ,तब उनकी यह छोटी सी लाठी विकास के बड़े बड़े अस्त्र को झुकने पर मजबूर कर देता है। जिस प्रकार हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘नाख़ून क्यों बढ़ते हैं’ और ‘अशोक के फूल ‘हमें अपनी उस अतीत की याद दिलाती है ,जहाँ से हमारी विकास यात्रा प्रारम्भ हुआ था।

अर्थात हमारे पास नाख़ून के आलावा कोई हथियार नहीं था। ठीक उसी प्रकार यह लाठी हमें उस अतीत की याद दिलाती है,जो बार बार शंखनाद करता है कि यही तुम्हारा एक हथियार है ,जो तुम्हें बड़ी से बड़ी हथियारों के वार से बचा कर रखेगा।
यह दृश्य इन बातों को प्रमाणित करने के लिए काफी है। आज वे लोग भी अवगत हो जाएंगे जिन्हें हमारे पूर्वज के अस्त्र पर शक है। हम ऐसे प्रतिनिधि करने वाले साहसी बाबा को सलाम करते हैं।

आपने लाठी की सार्थकता को प्रतिष्ठापित कर दिया। यही गरीब गुरबा ,आम आवाम ,शोषित वंचित ,शुद्र अशुद्र की एकमात्र हथियार है,जो बड़े बड़े शक्तियों के दाँत खट्टे कर देंगे। बस एकबार सबको सम्मलित होने की जरुरत है।

 

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