सीबीआई में मचे घमासान के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने सीबीआई चीफ़ आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेज दिया है। वर्मा ने इसके खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई है। जिसकी सुनवाई 26 अक्टूबर को की जाएगी।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, छुट्टी पर भेजे जाने से पहले आलोक वर्मा सात संवेदनशील मामलों की जांच कर रहे थे, जिनमें से एक राफ़ेल डील से जुड़ा मामला भी था।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और वकील प्रशांत भूषण ने भी इस बात का दावा किया है। राहुल ने आरोप लगाया कि आलोक वर्मा राफेल घोटाले से जुड़े कागजात इकट्ठा कर रहे थे, इसलिए उन्हें जबरदस्ती छुट्टी पर भेजा गया।

इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक, आलोक वर्मा जिन मामलों को देख रहे थे, उनमें सबसे संवेदनशील केस राफ़ेल डील से जुड़ा था। दरअसल, 4 अक्टूबर को ही वर्मा को पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और वकील प्रशांत भूषण की तरफ़ से 132 पेज की एक शिकायत मिली थी।

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इसमें कहा गया था कि फ्रांस के साथ 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने की सरकार की डील में गड़बड़ी हुई है। आरोप था कि हर एक प्लेन पर अनिल अंबानी की कंपनी को 35% कमीशन मिलने वाला है। दावा है कि आलोक वर्मा को जब हटाया गया, तब वे इस शिकायत के सत्यापन की प्रक्रिया देख रहे थे।

यह पहली बार नहीं है जब केंद्र ने सीबीआई चीफ़ के ख़िलाफ़ कार्रवाई की हो। इससे पहले 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में सीबीआई निदेशक त्रिनाथ मिश्रा को निदेशक पद से हटा दिया गया था।

उस वक्त भी तत्कालीन सीबीआई चीफ़ मिश्रा का महज़ इतना कसूर था कि उन्होंने धीरुभाई अंबानी के दिल्ली और मुंबई के ठिकानों पर छापेमारी कर दी थी। दिलचस्प बात यह है कि दो सीबीआई निदेशकों पर कार्रवाई एनडीए सरकार के कार्यकाल में ही हुई।

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19 नवंबर 1998 को सीबीआई ने धीरुभाई अंबानी के मुंबई के पॉश कफ परेड भवन और दिल्ली के ली मरेडियन दफ्तर पर दबिश दी थी। जिस मामले में दबिश दी गई थी वो किसी भ्रष्टाचार या गबन से संबंधित नहीं बल्कि ऑफिशियल सिक्रेट एक्ट से जुड़ा था।

सीबीआई को सूचना थी कि अंबानी के पास सरकार की नीतियों से जुड़े क्लासिफाइड कागजात थे। छापे के बाद सीबीआई ने दावा किया कि छापेमारी में पेट्रोलियम मंत्रालय से जुड़े क्लासिफायल कागज़ात मिले। मामले से जुड़े पुराने अधिकारी ने बताया कि उस दौरान धीरुभाई अंबानी ने वाजपेयी से फोन पर बात की थी। जिसके बाद मिश्रा को पद से हटा दिया गया था।

ग़ौरतलब है कि जिस वक्त त्रिनाथ मिश्रा को पद से हटाया गया उस वक्त सीबीआई चीफ़ की नियुक्ति सीधे केंद्र सरकार करती थी और निदेशक का दो साल के निश्चित अवधि का प्रवाधान भी नहीं था। लेकिन अब सीबीआई चीफ़ की नियुक्ति लोकपाल एक्ट के तहत होती है। जिसमें डायरेक्टर का कार्यकाल दो साल तय है। प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और सीजेआई की कमेटी ही डायरेक्टर को नियुक्त कर सकती है और हटा सकती है।

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लेकिन आलोक वर्मा के केस में इन नियमों का पालन नहीं किया गया और केंद्र ने कमेटी को विश्वास में लिए बिना ही आलोक वर्मा को डायरेक्टर के पद से हटा दिया और उनकी जगह अंतरिम व्यवस्था के लिए ज्वाइंट डायरेक्टर एम नागेश्वर राव को जिम्मा सौंप दिया।

ग़ौरतलब है कि जहां त्रिनाथ मिश्रा को धीरुभाई अंबानी के खिलाफ़ कार्रवाई करने का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा था वहीं आलोक वर्मा के बारे में कहा जा रहा है कि उन्हें राफ़ेल में अनिल अंबानी की भूमिका से जुड़े कागज़ात इकठ्ठा करने की सज़ा मिली है।

यह महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि जिस भी अधिकारी ने अंबानी घराने पर हाथ डालने की कोशिश की उसे सरकार द्वारा ठिकाने लगा दिया गया। यह भी इत्तेफ़ाक़ नहीं कि दोनों सीबीआई निदेशकों पर कार्रवाई एनडीए सरकार के कार्यकाल में ही हुई। दोनों ही मामलों को देखते हुए यह कहना मुश्किल नहीं कि अंबानी घराने को बचाने के लिए बीजेपी पूरे सरकारी तंत्र को पलट सकती है।

By: Asif Raza

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