अगले साल 2019 लोकसभा चुनाव हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता में आए चार साल से ज़्यादा का समय हो गया है। वो कई वादों के रथ पर सवार होकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। इन वादों में से एक वादा था रोजगार का।
भारत विश्व का सबसे ज़्यादा युवाओं वाला देश है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम उम्र वाले व्यक्तियों की है। इसलिए नौकरी इस देश के युवाओं की सबसे बड़ी ज़रूरत है।
नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा के चुनाव में हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था। लेकिन ये बात जगज़ाहिर है कि वो इसे निभाने में नाकामयाब रहे। देश की बेरोज़गारी दर इस समय 5 प्रतिशत के आंकडें को पार कर चुकी है जो पिछले 20 सालों में अधिकतम है।
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बाज़ार में रोजगार ना पैदा होने का ज़िम्मेदार सरकार के साथ-साथ आर्थिक हालातों और वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रभावों को भी ठहराया गया। सरकार तो यही कहकर अपनी ज़िम्मेदारी से बच रही है।
वैसे तो इस पर भी वाद-विवाद हो सकता है लेकिन अगर इस मुद्दे को छोड़ भी दिया जाए तो क्या मोदी सरकार के हाथ में जो क्षेत्र थे वो वहां युवाओं को नौकरी दे पाई?
इस सवाल का जवाब है ‘नहीं’। अगर निजी क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो सरकारी क्षेत्र में भी इस सरकार का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। पिछले चार साल से ज़्यादा के समय में हर साल दो करोड़ नौकरी का वादा करने वाली इस सरकार ने सरकारी क्षेत्रों में नौकरी बढ़ाने के बजाए अबतक पदों सरकारी कर्मचारियों की संख्या में 2,42000 की कटौती की है।
जब 2014 में भाजपा की सरकार बनी तो केंद्र सरकार के अंतर्गत 33.28 लाख लोग प्रशासन में काम कर रहे थे। सेन्ट्रल मोनिटरिंग ऑफ़ इंडियन इकॉनमी के मुताबिक, 2017 में ये संख्या घटकर 32.53 लाख रह गई है। यानि 75000 पद खाली हुए और उन्हें भरा नहीं गया।
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वहीं, सार्वजानिक उद्यमों यानि 330 सरकारी कंपनियों में 2014 में 16.91 लाख लोग काम कर रहे थे। 2017 में इनकी संख्या 15.24 लाख रह गई है। मतलब 1.67 लाख पद खाली हुए लेकिन भर्ती नहीं की गई।
भारत में हर साल 1.5 करोड़ लोग नौकरी के लिए बाज़ार में उतरते हैं और इनमें से एक बड़ी संख्या सरकारी नौकरियों के लिए संघर्ष करती है। इसके बावजूद सरकार नौकरियों की संख्या बढ़ाने के बजाए मौजूदा पदों पर भी भर्तियाँ नहीं कर रही है।